छह दिसंबर 1992 को सोलहवीं सदी की बनी बाबरी मस्जिद जिसे आगे न्यायिक प्रक्रिया में विवादित ढांचा माना गया व संबोधित किया गया को कारसेवकों की एक भीड़ ने ढहा दिया था जिसे लेकर देश भर में सांप्रदायिक तनाव बढ़ गया था, जिसके चलते देश भर में हिंसा हुई और हज़ारों लोग इस हिंसा की बलि चढ़ गए, विवादित ढांचा गिरने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने उसे दोबारा तामील करने की घोषणा की थी और दस दिन बाद ढांचा ढहाने की घटना और उसके पीछे कथित षड्यंत्र की जांच के लिए जस्टिस एमएस लिब्राहन की अध्यक्षता में एक जांच आयोग का गठन भी कर दिया, उक्त जांच आयोग ने सत्रह साल बाद अपनी रिपोर्ट पेश की लेकिन अदालत में इस मामले में फ़ैसला आने में इतना लंबा वक़्त लग गया कि उससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने उस जगह पर ही मंदिर बनाने का फ़ैसला भी दे दिया है और मंदिर निर्माण की प्रक्रिया भी शुरू हो गई है।
अब अगर हम लखनऊ के सीबीआई की स्पेशल कोर्ट के फैसले पर गौर करें तो यह बात शीशे की तरह से साफ हो जाएगी कि वास्तव में पूरे प्रकरण में सिर्फ और सिर्फ कानून की जीत हुई है, दरअसल पहले हम पहले कुछ घटनाक्रमों को बताते चलें, बुधवार को देश और दुनिया की निग़ाहें जिस अहम फ़ैसले पर लगी थी उसे सुनाया तो लखनऊ में सीबीआई की स्पेशल कोर्ट में जाना था लेकिन उसका केंद्र अयोध्या में था, जहां पर मंगलवार की रात तक लोगों को इसके बारे में कुछ ख़ास जानकारी नहीं थी लेकिन बुधवार सुबह अचानक बढ़ी सुरक्षा व्यवस्था और प्रशासनिक चौकसी ने उन्हें यह आभास करा दिया था कि आज कुछ ख़ास दिन है और आज बुधवार दोपहर 12 बजे जब लखनऊ की सीबीआई कोर्ट ने यह फ़ैसला सुना दिया कि छह दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में जिन 32 लोगों पर 27 साल से मुक़दमा चल रहा है, वो सभी निर्दोष हैं, उसके बाद भी अयोध्या की सड़कें वैसे ही गुलज़ार थीं जैसे कि उससे पहले थी, बताते चलें कि छह दिसंबर 1992 को कई दिनों से अयोध्या में कारसेवा के लिए डटे कारसेवकों ने विवादित ढांचे को गिरा दिया और वहां एक अस्थाई मंदिर बना दिया, उसी दिन इस मामले में दो एफ़आईआर दर्ज की गई, पहली एफ़आईआर संख्या 197/1992 उन तमाम कारसेवकों के ख़िलाफ़ दर्ज की गई थी जिसमें उन पर डकैती, लूट-पाट, चोट पहुंचाने, सार्वजनिक इबादत की जगह को नुक़सान पहुंचाने, धर्म के आधार पर दो गुटों में शत्रुता बढ़ाने जैसे आरोप लगाए गए थे और दूसरी एफ़आईआर 198/1992 बीजेपी, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल और आरएसएस से जुड़े उन 8 लोगों के ख़िलाफ़ थी जिन्होंने रामकथा पार्क में मंच से कथित तौर पर भड़काऊ भाषण दिया था, इस एफ़आईआर में बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी, वीएचपी के तत्कालीन महासचिव अशोक सिंघल, बजरंग दल के नेता विनय कटियार, उमा भारती, साध्वी ऋतंभरा, मुरली मनोहर जोशी, गिरिराज किशोर और विष्णु हरि डालमिया नामज़द किए गए थे।
पहली एफ़आईआर में दर्ज लोगों के मुक़दमे की जांच बाद में सीबीआई को सौंप दी गई जबकि दूसरी एफ़आईआर में दर्ज मामलों की जांच यूपी सीआईडी को सौंपा गया, साल 1993 में दोनों एफ़आईआर को अन्य जगहों पर ट्रांसफ़र कर दिया गया, कारसेवकों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर संख्या 197 की सुनवाई के लिए ललितपुर में एक स्पेशल कोर्ट का गठन किया गया जबकि एफ़आईआर संख्या 198 की सुनवाई रायबरेली की विशेष अदालत में ट्रांसफ़र की गई, इसी बीच पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने एक अध्यादेश के तहत रामलला की सुरक्षा के नाम पर क़रीब 67 एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण कर लिया और सात जनवरी 1993 को इस अध्यादेश को संसद की मंज़ूरी मिलने के बाद इसे क़ानून में तब्दील कर दिया गया, ढांचा विध्वंस के दस दिन बाद मामले की जांच के लिए बनाए गए लिब्राहन आयोग को जांच रिपोर्ट सौंपने के लिए अधिकतम तीन महीने का समय दिया गया था लेकिन समय-समय पर इसकी अवधि बढ़ती रही और 17 साल के दौरान आयोग का कार्यकाल 48 बार बढ़ाया गया, लिब्राहन आयोग ने 30 जून 2009 को अपनी रिपोर्ट गृह मंत्रालय को सौंपी और इस दौरान आयोग के काम-काज पर क़रीब 8 करोड़ रुपए खर्च हुए, ढांचा विध्वंस की जाँच रिपोर्ट में लिब्राहन आयोग ने पाया कि मस्जिद को एक गहरी साज़िश के तहत गिराया गया था, आयोग ने साज़िश में शामिल लोगों पर मुक़दमा चलाए जाने की सिफ़ारिश भी की थी, ढांचा विध्वंस मामले में उसी दिन दर्ज कराए गए दो अहम मुक़दमों के अलावा 47 और मुक़दमे दर्ज कराए गए जिनमें पत्रकारों के साथ मारपीट और लूटपाट जैसे आरोप लगाए गए थे, बाद में इन सारे मुक़दमों की जाँच सीबीआई को सौंप दी गई, इसके लिए इलाहाबाद हाई कोर्ट की सलाह पर लखनऊ में अयोध्या मामलों के लिए एक नई विशेष अदालत गठित हुई लेकिन उसकी अधिसूचना में दूसरे वाले मुक़दमे का ज़िक्र नहीं था जिसके कारण एफ़आईआर संख्या 198 के तहत दूसरा मुक़दमा रायबरेली में ही चलता रहा, साथ ही, मुक़दमों को ट्रांसफर किए जाने से पहले साल 1993 में एफ़आईआर संख्या 197 में धारा 120बी यानी आपराधिक साज़िश को भी जोड़ दिया गया, मूल एफ़आईआर में यह धारा नहीं थी, 5 अक्टूबर 1993 को सीबीआई ने एफ़आईआर संख्या 198 को भी शामिल करते हुए एक संयुक्त आरोप पत्र दाखिल किया क्योंकि दोनों मामले एक-दूसरे से जुड़े हुए थे, आरोप पत्र में बाला साहेब ठाकरे, कल्याण सिंह, चंपत राय, धरमदास, महंत नृत्य गोपाल दास और कुछ अन्य लोगों के नाम अभियुक्तों में जोड़े गए, 8 अक्टूबर 1993 को यूपी सरकार ने मामलों के ट्रांसफर के लिए एक नई अधिसूचना जारी की जिसमें बाकी मामलों के साथ आठ नेताओं के ख़िलाफ़ एफ़आईआर संख्या 198 को जोड़ दिया गया इसका अर्थ यह था कि बाबरी मस्जिद ढहाए जाने से जुड़े सभी मामलों की सुनवाई लखनऊ की स्पेशल कोर्ट में होगी, साल 1996 में लखनऊ की विशेष अदालत ने सभी मामलों में आपराधिक साज़िश की धारा को जोड़ने का आदेश दिया, इस मामले में सीबीआई ने एक पूरक आरोप पत्र दाख़िल किया जिसके आधार पर अदालत इस नतीजे पर पहुंची कि लालकृष्ण आडवाणी सहित सभी नेताओं पर आपराधिक साज़िश के आरोप तय करने के लिए पहली नज़र में पर्याप्त सबूत थे, विशेष अदालत ने आरोप निर्धारण के लिए अपने आदेश में कहा कि चूँकि सभी मामले एक ही कृत्य से जुड़े हैं इसलिए सभी मामलों में संयुक्त मुक़दमा चलाने का पर्याप्त आधार बनता है, लेकिन लालकृण आडवाणी समेत दूसरे अभियुक्तों ने इस आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दे दी, 12 फ़रवरी 2001 को हाईकोर्ट ने सभी मामलों की संयुक्त चार्जशीट को तो सही माना लेकिन साथ में यह भी कहा कि लखनऊ विशेष अदालत को आठ नामज़द अभियुक्तों वाला दूसरा केस सुनने का अधिकार नहीं है, क्योंकि उसके गठन की अधिसूचना में वह केस नंबर शामिल नहीं था, इसे अगर हम सरल शब्दों में कहें तो आडवाणी और अन्य हिंदूवादी नेताओं पर दर्ज मुक़दमा क़ानूनी दांव-पेच और तकनीकी कारणों में फंसा रहा, दरअसल अभियुक्तों के वकील यह साबित करने में क़ामयाब रहे कि उत्तर प्रदेश सरकार की प्रशासनिक चूक के कारण उनके ख़िलाफ़ ग़लत तरीक़े से आरोप लगाए गए हैं, इस कथित प्रशासनिक चूक का इस्तेमाल आडवाणी और अन्य अभियुक्तों ने आपराधिक साज़िश के आरोप हटाने के लिए किया क्योंकि ये आरोप केवल एफ़आईआर संख्या 197 के मामले में डाले गए थे, हाईकोर्ट ने सीबीआई को निर्देश दिया कि यदि उनके पास आडवाणी और अन्य लोगों के ख़िलाफ़ आपराधिक षड्यंत्र के सबूत हैं तो रायबरेली कोर्ट में सप्लीमेंट्री चार्जशीट दाखिल करे।
यह तो रहा मामले का संक्षिप्त घटनाक्रम और इतिहास, अब हम बात करते हैं कैसे इस मामले में हुए फैसले से कानून की जीत हुई है, दरअसल हम आपको बताते चलें कि ढांचा विध्वंस हुआ यह बात जितना सत्य है उतना ही बड़ा सत्य यह भी है कि ढांचा विध्वंस के समय उक्त ढांचे के आसपास उपरोक्त घटनाक्रम में आरोपित अभियुक्तों में से कोई भी व्यक्ति मौजूद नहीं था ऐसे में दर्ज कराई गई दोनों एफआईआर में तमाम धाराएं कपोल-कल्पित, मनगढ़ंत और घेरेबन्दी के तहत बढ़ाई गई थी, सिर्फ और सिर्फ एक ही धारा ऐसी थी जो कि संभवतः सच साबित हो सकती थी वह थी धारा 120बी यानी आपराधिक साज़िश रचने का मामला, लेकिन घेरेबन्दी के चक्कर में वास्तविक बिंदुओं को नजरंदाज कर दिया, यही नहीं मूल एफआईआर में तो 120बी पर इतना जोर ही नहीं दिया गया था इसलिए मुकदमा तो कमजोर होना ही था बल्कि इस बात पर आश्चर्य होता है कि इतना कमजोर मुकदमा इतने दिनों तक कैसे चलता रहा तो जवाब संभवतः यही मिलेगा, मीडिया ट्रायल।
जी हां यह सच है कि उपरोक्त मुकदमा जितनी दमदारी से न्ययालय में नहीं लड़ा जा रहा था उससे कहीं अधिक मीडिया में लड़ा जा रहा था और उसी के चलते धाराएं बढ़ाई जाती रहीं, अभियुक्तों के नाम बढ़ाए जाते रहे जबकि जहां तक कानूनी जानकारों का मानना है कि अगर पूरा मुकदमा सिर्फ धारा 120बी के तहत चलाया जाता तो मुकदमें का फैसला संभवतः कुछ और हो सकता था इसलिए अब सांप के चले जाने के बाद लकीर पीटने की आवश्यकता नहीं है और न ही न्यायपालिका पर किसी भी तरह से उंगली उठाने की जरूरत है जैसा कि कुछ बयानवीरों के बयान पढ़ने को मिले कि यह बहुमत की सरकार का फैसला है, यह कहना न सिर्फ न्यायपालिका का अपमान है बल्कि हमारे ओछेपन को भी दर्शाता है, वास्तविकता यह है कि जितने सबूत सम्माननीय न्यायालय के सामने प्रस्तुत किए गए थे उसमें इससे ज्यादा कुछ करने के लिए संभवतः था ही नहीं, और यह भी सच है कि केन्द्र में और प्रदेश में इस दौरान ज्यादातर गैर भाजपा सरकारें ही विद्यमान रही हैं इसलिए हमें अनावश्यक अनर्गलबाजी से बचते हुए न्यायालय के फैसले का सम्मान और स्वागत करना चाहिए, यदि किसी पक्ष को कोई भी आपत्ति है तो समस्त अपीलीय अधिकारी खुले हुए हैं।